ग्यारहवां अध्य

 

ऋभु-अमरताके शिल्पी

 

गवेद, मण्डल 1, सूक्त 2०

 

अयं देवाय जन्मने स्तोमो विप्रेभिरासया ।

अकारि रत्नधातम: ।।1।।

 

(अयम्) देखो, यह (देवाय जन्मने) दिव्य जन्मके लिये (विप्रेभि:) प्रकाशमान मनवालों द्वारा (आसया) मुखके प्राणसे (स्तोभ: अकारि) [ऋभुओंकी] स्तुति की गयी है, (रत्नधातम:) जो पूर्णतया सुख देनेवाली है ||1||

 

य इन्द्राय वचोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी ।

शमीभिर्यज्ञमशत ।।2।।|

 

(ये) जिन्होंने (इन्द्राय) इन्द्रके लिये (मनसा) मन द्वारा (वचोयुजा हरी ततक्षु:) वाणीसे नियोक्तव्य उसके दो चमकदार घोड़ोंको निर्मित किया, रचा; वे (शमीभि:) अपनी कार्य-निष्पत्तियोंके द्वारा (यज्ञम् आशत) यज्ञका उपभोग करते हैं ।।2।।

 

क्षन् नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् ।

तक्षम् धेनुं सबर्दुघाम् ।।3।।

 

उन्होंने (नासत्याभ्याम्) समुद्रयात्राके युगल देवों [ अश्विनों] के लिये (परिज्यामं) सर्वव्यापी गतिवाले (सुखं रंथम्) उनके सुखमय रथको (तक्षन्) रचा उन्होंने (सवर्दुधां धेनुं तक्षन्) मधुर दूध देनेवाली प्रीण- यित्री गौको रचा ।।3।।

 

युवाना पितर। पुन: सत्यमन्त्रा ॠजूयव: ।

ॠभवो विष्टचक्रत ।।4।।

 

(ऋभव:) हे ऋभुओ ! जो तुम (ऋजूयव: ) सरल मार्गको चाहने-वाले हो, (सत्यमन्त्रा:) वस्तुओंको मनोमय रूप देनेकी अपनी क्रियाओंमें सत्यसे युक्त हो तुमने (विष्टि) अपनी अभिव्याप्तिमें (पितरा) पिता-माताओंको (पुन: युवाना अक्रत) फिरसे जवान कर दिया ।।4।।

 

सं वो मदासो अग्मतेन्द्रेण च मरुत्वाता ।

आदित्येभिष्च राजभिः ।।5।।


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( मदास:) सोम-रसके आनंद (व: समग्मत) तुम्हें पूर्णतया प्राप्त होते हैं, ( मरुत्वता इन्द्रेण च) मरुतोंके सहचर इन्द्रके साथ, (राजभि: आदित्येभि: च) और राजा-भूत अदितिके पुत्रोंके साथ  ।।5।।

 

उत त्यं चमसं नव त्यष्टुर्देवस्य निष्ठतम् ।

अकर्त चतुर: पुन: ।।6।।

 

(उत) और ( त्वष्टुः त्यं नव निष्कृतं चमसम्) त्वष्टाके इस नवीन तथा पूर्ण किये हुए प्यालेके, तुमने (पुनः चतुर: अकर्त) फिर चार [ प्याले ]  कर दिये ।।6।।

 

ते नो रत्नानि धत्तन त्रिरा साप्तानि सुन्वेते ।

एकमेकं सुशस्तिभि: ।।7।।

 

( ते) वे तुम ( सुन्वते नः) हम सोमहवि देनेवालोंके लिये (त्रि: साप्तानि रत्नानि) त्रिगुणित सप्त आनंदोंको (आ-धत्तन) घृत कर द्रो, (एकमेकम्) प्रत्येकको पृथक्-पृथक् (सुशस्तिभि:) उनकी पूर्ण अभिव्यक्तियोंके द्वारा धृत कर दो ।।7।।

 

अधारयन्त षह्नयोऽभजन्त सुकृत्यया ।

मागं देवेषु यज्ञियम् ।।8।।

 

(वह्नय: अधारयन्त) उन वहन करनेवाले ( ऋभुओं ]ने [उन रत्नोंको ] धारण किया और स्थित कर दिया, उन्होंने  (सुकृत्यया) अपने कर्मोकी पूर्णता द्वारा ( यज्ञियं भागम्) यज्ञिय भागको ( देवेषु अभजन्त) देवोंमें विभाजित कर दिया ।।8।।

 

भाष्य

 

ऋभुओंके विषयमें ऐसा संकेत किया गया है कि वे सूर्यकी किरणें हैं । और यह सच भी है कि वरुण मित्र, ग और अर्यमाकी तरह वे सौर प्रकाशकी, सत्यकी, शक्तियाँ हैं । परंतु वेदमें उनका विशेष स्वरूप यह है कि वे अमरताके शिल्पी हैं । वे उन मानद पुरुषोंके रूपमें चित्रित किये गये हैं जिन्होंने ज्ञानकी शक्ति द्वारा तथा अपने कर्मोकी पूर्णता द्वारा देवत्वकी अवस्था प्राप्त कर ली है । उनका कार्य यह है कि दिव्य प्रकाश तथा आनंदकी जो अवस्था उन्होंने अपने दिव्य विशेषाधिकारके तौरपर स्वयं अर्जित कीं है, उसीकी ओर मनुष्यको उठा ले जानेमें वे इन्द्रकी सहायता करें । उन्हें संबोधित किये गये सूक्त वेदमें थोड़े ही हैं और प्रथम दृष्टिमें वे अत्यधिक गूढ़ार्थवाले प्रतीत होते हैं; क्योंकि वे कुछ रूपकों तथा प्रतीकोंसे भरे हुए हैं जो बार-बार दोहराये गये हैं । किंतु एक बार जब वेदके मुख्य-मुख्य सूत्र विदित हो जायँ तो वे उलटे अत्यधिक स्पष्ट

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 और सरल हो जाते हैं और एक संगतियुक्त तथा मनोरंजक विचार उपस्थित करते हैं जो अमरताके वैदिक सिद्धांतपर स्पष्ट प्रकाश डालता है ।

 

 ऋभु प्रकाशकी शक्तियाँ हैं जो भौतिकताके अंदर अवतीर्ण हुई हैं और वहाँ उन मानवशक्तियोंके रूपमें जनित हो गयी हैं जो देव तथा अमर बन जानेकी अभीप्सामें लगी हैं । अपने इस स्वरूपमें वे 'सुधन्वन्'1 के पुत्र (सौधन्वना:) कहाते हैं,-यह एक पैतृक नाम हैं जो केवल इसका आलंकारिक निदर्शन है कि वे भौतिकताकी परिपूर्ण शक्तियोंसे तब पैदा होते हैं जब वे शक्तियाँ प्रकाशित शक्तिसे संस्पृष्ट होती हैं । परंतु उनका असली स्वरूप यह है कि वे इस प्रकाशित शक्तिके अंदरसे अवतीर्ण हुए हैं और कहीं-कहीं उन्हें  ''इन्द्रकी संतानो ! प्रकाशित शक्तिके पौत्रो !'' कहकर संबोधित भी किया गया हैं (4.37.4) । क्योंकि इन्द्र अर्थात् मनुष्यमें रहनेवाला दिव्य मन, प्रकाशित शक्तिके अंदरसे पैदा हुआ है, जैसे अग्नि विशुद्ध शक्तिके अंदरसे, और इस दिव्य मन-रूपी इन्द्रसे पैदा होती हैं अमरताकी इच्छुक मानवीय अभीप्साएँ ।

 

तीन ऋभुओंके नाम उनकी उत्पत्तिके क्रमके अनुसार ये हैं, पहला ऋभु या ऋभुक्षन् अर्थात् कुशल ज्ञानी या ज्ञानको गढ़नेवाला, दूसरा विम्वा या विभु अर्थात् व्यापी, आत्मप्रसारक, तीसरा वाज अर्थात् प्रचुरत्व । उनके अलग-अलग नाम उनका विशेष स्वरूप और कर्म दर्शाते हैं, किंतु वस्तुत: वे मिलकर एक त्रैत हैं, और इसलिये वे 'विभव:' या 'वाजा:' भी कहलाते हैं, यद्यपि प्रायः उन्हें 'ऋभवः' ( ऋभु) नाम ही दिया गया है । उनमें सबसे बड़ा, ऋभु, मनुष्यके अंदर वह प्रथम ऋभु है जो अपने विचारों तथा कर्मोके द्वारा अमरताके रूपोंकी आकृति बनाना शुरू करता हैं; विम्वा इस रचनाको व्यापकता प्रदान करता है; सबसे छोटा, बाज, दिव्य प्रकाश और उपादान-तत्त्वकी प्रचुरता प्रदान करता हैं जिसके द्वारा पूर्ण कार्य सिद्ध हो सकता है । सूक्तमें यह बार-बार दोहराया गया है कि अमरताके इन कर्मो और निर्माणोंको वे विचारकी शक्ति द्वारा, मनको क्षेत्र और सामग्री बनाकर करते हैं; वे किये जाते हैं शक्तिसे; उनके संग जती है रचनात्मक तथा फलोत्पादक क्रियामें परिपूर्णता स्वपस्यया, सुकृत्यया, जो अमरताके गढ़े जानेकी शर्त है । इन अमरताके शिल्पियोंकी ये रचनाएँ, जैसे कि उपस्थित सूक्तमें संक्षेपसे संगृहीत कर दी गयी हैं,  ये हैं- 1.

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1. धन्वन्'का अर्थ यहां धनुष नहीं है, किन्तु भौतिकताका वह पिण्ड या मरुस्थल है जिसे

    दूसरे  रूपमें उस पहाड़ी या चट्टानके रूपसे प्रतिरूपित किया गया है जिसमेंसे जल और

    किरणोंको छुड़ाकर आया जाता है ।

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 इन्द्रके घोड़े, 2. अश्विनोंके रथ, 3. मधुर दूध देनेवाली गाय, 4. विश्व-व्यापी पिता-माताओंकी जवानी, 5. देवोंके उस एक पीनेके प्यालेको चतुर्गुणित कर देना जिसे आरंभमें त्वष्टा, पदार्थोंकि रचयिताने रचा था ।

 

सूक्त अपने उद्दिष्ट विषयके संकेतसे आरंभ होता हैं । यह ॠभु- शक्तियोंकी स्तुति है जो दिव्य, जन्मके लिये की गयी है, उन मनुष्यों द्वारा की गयी है जिनके मनोंने प्रकाशमयताको पा लिया है और जिनके मनोंके अंदर प्रकाशकी वह शक्ति है जिसमेंसे ऋभु पैदा हुए थे । यह की गयी है मुखके प्राण द्वारा, विश्वमें विद्यमान जीवन-शक्तिके द्वारा । इसका उद्देश्य है मानवीय आत्माके अंदर परमानंदके समस्त सुखोंको, दिव्य जीवनके जो त्रिगुणित सात आनंद हैं उनको दढ़ करा देना । (देखो, मंत्र पहला)

 

यह दिव्य जन्म निदर्शित किया गया है ऋभुओं द्वारा, जो पहले मानव होकर अब अमर हो गये हैं । इस दिव्य जन्मके ऋमु निदर्शन हैं, दृष्टांत हैं । कार्यकी--मानवके ऊर्ध्वमुख विकासके उस महान् कार्यकी जो विश्व-यज्ञकी पराकोटि है,-अपनी निष्पत्तियों, कार्यपूर्त्तियों, निर्मितियों द्वारा उन्होंने उस यज्ञमें-विश्व-यज्ञमें-दिव्य शक्तियों (देवताओं) के साथ अपने दिव्य भाग और स्वत्वको प्राप्त किया है । वे निर्माणकी और ऊर्ध्वमुखी प्रगतिकी उन्नतिप्राप्त मानवीय शक्तियाँ हैं जो मनुष्यके दिव्यी- करणमें देवोंकी सहायता करती हैं । और उनकी सब निष्पत्तियोमें, सब निर्माणोंमेंसे जो केंद्रभूत है वह है इन्द्रके दो जगमगाते घोड़ोंका निर्माण, उन घोड़ोंका जो वाणी द्वारा अपनी गतियोंमें नियुक्त किये जाते हैं, जो शब्द द्वारा नियुक्त होते हैं और रचे जाते हैं मनसे । क्योंकि प्रकाशित मनकी, मनुष्यके अंदर विद्यमान दिव्य मनकी, उन्मुक्त गति ही अन्य सभी अमरताप्रद कार्योकी शर्त है । (देखो, मंत्र दूसरा)

 

ऋमुओंका दूसरा कार्य है अश्विनों, मानवीय यात्राके अधिपतियों, का रथ निर्मित करना--अभिप्राय हैं, मनुष्यके अंदर आनंदकी उस सुखमय गतिको रचित करना जो अपनी क्रिया द्वारा उसके अंदरके सत्ताके सब लोकों या स्तरोंको व्याप्त कर लेती है, भौतिक पुरुषको स्वास्थ्य, यौवन, , संपूर्णता, प्राणमय पुरुषको सुखभोगकी तथा क्रियाकी क्षमता, मनोमय पुरुषको प्रकाशकी आनंदमयी शक्ति प्रदान करती है,--संक्षेपमें कहना चाहें तो वह उसके सब अंगोंकि अंदर सत्ताके विशुद्ध आनंदका सामर्थ्य का देती है । (देखो, तीसरे मंत्रका ' पूर्वार्द्ध')

 

ऋमुओंका तीसरा कार्य है उस गौको रचना जो मधुर दूध देती है । दूसरे स्थानपर यह कहा गया है कि यह गौ आच्छादक त्वचाके अंदरसे--

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 प्रकृतिकी बहिर्मुख गति तथा क्रियाके पर्देके अंदरसे-ऋभुओं द्वारा छुड़ाकर लायी गयी है, निश्चर्मणो गामरिणीत धीतिभि: । यह प्रीणयित्री गौ ( धेनु) स्वयं वह हैं जो गतिके विश्वव्यापी रूपोंकी और विश्वव्यापी वेगकी गौ है, विश्वजुवम्, विश्वरूपाम्, दूसरे शब्दोंमें वह हैं आदि-रश्मि, अदिति, असीमित सचेतन सत्ताकी असीमित चेतना, जो लोकोंकी माता है । वह चेतना ऋभुओं द्वारा प्रकृतिकी आवरण डालनेवाली गतिके अंदरसे निकालकर लायी गयी है और उसकी एक आकृतिको उन्होंने यहाँ हमारे अंदर रच दिया है । वह द्वैत-शक्तियोंकी क्रियाके द्वारा, अपनी संतानसे, निम्न- लोकवर्ती आत्मासे, जुदा कर दी गयी है; ऋभु उसे फिरसे अपनी असीम माताके साथ सतत साहचर्य प्राप्त करा देते हैं । ( देखो, तीसरे मंत्रका उत्तरार्द्ध)1

 

ऋभुओंका एक और महान् कार्य है अपने पूर्वकृत कार्यो--इन्द्रके प्रकाश, अश्विनोंकी गति, प्रीणयित्री गौके परिपूर्ण दोहन-से शक्ति पाकर विश्वके वृद्ध पिता-माताओं, द्यौ तथा पृथिवीको पुन: जवानी प्राप्त करा देना । द्यौ है मनोमय चेतना, पृथिवी है भौतिक चेतना । ये दोनों मिलकर इस रूपमें प्रदर्शित किये गये हैं कि ये चिर-वृद्ध हैं और नीचे गिर पड़े यज्ञ-स्तंभोंकी तरह लंबे भूमिपर, जीर्ण-शीर्ण और कष्ट भोगते हुए पड़े हैं, सना यूपेव जरणा शयाना । कहा गया है कि ऋभु आरोहण करके सूर्यके उस घरतक पहुँचते हैं जहाँ वह अपने सत्यकी अनावृत दीप्तिके साथ निवास करता है, और वहाँ वे बारह दिन निद्रा लेकर, उसके बाद द्यौ तथा पृथिवीको सत्यकी प्रचुर वृष्टिसे भरपूर करके, इन्हें पालित-पोषित करके, फिरसे जवानी तथा शक्ति प्रदान कर, इन्हें पार कर जाते हैं ।2 वे द्यौको अपने कार्योंसे व्याप्त कर लेते हैं, वे मनोमय सत्ताको दिव्य उन्नति प्राप्त करा देते हैं;3 वे इसे और भौतिक सत्ताको एक नवीन तथा यौवनपूर्ण और अमर गति प्रदान कर देते हैं । क्योंकि सत्यके घरमेंसे वे अपने साथ उसे पूर्ण करके ले आते हैं जो उनके कार्यकी शर्त है, अर्थात् सत्यके सरल मार्गमें होनेवाली गतिको और मनके सब विचारों तथा शब्दोंमें अपनी पूर्ण प्रभावोत्पादकता सहित स्वयं सत्यको । इस शक्तिको निम्न लोकके अंदर अपने व्यापी प्रवेशमें साथ ले जाकर, वे उसके अंदर अमृत-तत्त्व उँडेल देते हैं । ( देखो, मंत्र चौथा)

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1. अन्य व्योरोंके लिये देखो, ॠग्० 4.33. 4  व 8; 4.36.4 आदि ।

2. देखो, ऋग्वेद 4.33 .2,3,7; 4.36.1.161. 7

3. देखो, ऋग्येद 4.33.1, 2

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 जिसे वे अपने कार्यो द्वारा अधिगत करते हैं और मनुष्यको उसके यज्ञमें प्राप्त कराते हैं वह इसी अमृत-तत्त्वका रस और इसके आनंद हैं । और इस सोमपानमें उनके साथ जो आकर बैठते हैं वे हैं, एक तो इन्द्र तथा मरुत् अर्थात् दिव्य मन तथा इसकी विचार-शक्तियाँ, और दूसरे चार महान् राजा, अदितिके पुत्र, असीमताकी संतानें,-जो हैं वरुण मित्र, अर्यमा, भग,--क्रमश:, सत्य-चेतनाकी पवित्रता और बृहत्ता, इसका प्रेम तथा प्रकाश और समस्वरताका नियम, इसकी शक्ति और अभीप्सा, इसका वस्तुओंका पवित्र तथा सुखमय भोग । (देखो, मंत्र पाँचवाँ)

 

और वहाँ यज्ञमें ये देव चतुर्गुणित प्याले, चमसं चतुर्षयम्में अमृतके प्रवाहोंका पान करते हैं । क्योंकि त्वष्टा, पदार्थोंकि रचयिताने आरंभमें मनुष्यको केवल एक ही प्याला, भौतिक चेतना, भौतिक शरीर, दिया, जिसमें भरकर सत्ताका आनंद देवोंको अर्पित किया जाय । ऋभु, प्रकाशमय ज्ञानकी शक्तियाँ, इस त्वष्टाकी बादकी क्रियाओंसे पुनर्नवीकृत तथा पूर्णीकृत इस प्यालेको लेते हैं और मनुष्यके अंदर चार लोकोंकी सामग्रीसे तीन अन्य शरीर (प्याले), प्राणमय, मनोमय और कारणभूत या विचारशरीर, निर्मित कर देते हैं । (देखो, मंत्र छठा)

 

क्योंकि उन्होंने इस आनंदके चतुर्गुणित प्यालेको रचा है और इसके द्वारा मनुष्यको सत्यचेतनाके लोकमें निवास करने योग्य बना दिया है, इसलिये अब वे इस योग्य हैं कि इस पूर्णताप्राप्त मानव-सत्ताके अंदर मन, प्राण और शरीरमें उँड़ेले गये उच्च सत्ताके त्रिगुणित सात आनंदोंको प्रतिष्ठित कर सकें । इन सबके समुदायमें भी वे इनमेंसे प्रत्येकको उसके पृथक्-पृथक् परम-आनदकी पूर्ण अभिव्यक्तिके द्वारा पूरे तौरसे प्रदान कर सकते हैं । (देखो, मंत्र सातवाँ)

 

ऋभुओंके अंदर शक्ति है कि वे सत्ताके आनंदकी इन सब धाराओंको मानवीय चेतनाके अंदर धारण तथा स्थिर कर सकें; और वे इस योग्य हैं कि अपने कार्यकी परिपूर्त्ति करते हुए, इसे अभिव्यक्त हुए देवोंके बीचमें, प्रत्येक देवको उसका यज्ञिय भाग देते हुए, विभाजित कर सकें । क्योंकि इस प्रकारका पूर्ण विभाजन ही फलसाधक यज्ञ, पूर्णतायुक्त कार्यकी समस्त शर्त है । (देखो, मंत्र आठवा)

 

इस प्रकारके हैं वे ऋभु और ये मानवीय यज्ञमें इसलिये बुलाये गयें हैं कि मनुष्यके लिये अमरताकी वस्तुओंको रचें, जैसे कि इन्होंने अपने लिये उन्हें रचा था । ''ह प्रचुर ऐश्वर्योंसे परिपूर्ण (वाजी) और श्रमके लिये आवश्यक बलसे परिपूर्ण (अर्वा) हो जाता है, वह आत्माभिव्यक्तिकी

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 शक्तिसे ऋषि बन जाता है, वह युद्धोंमें शूरवीर और विद्ध कर डालनेके लिये जबर्दस्त प्रहार करनेवाला हो जाता हैं, वह अपने अंदरकी आनंदकी वृद्धि तथा पूर्ण बल धारण कर लेता है, जिसे ॠभुगण, वाज और विम्वा, पालित करते हैं ।1... क्योंकि तुम द्रष्टा हो और स्पष्ट-विवेकयुक्त विचारक हो,  इस प्रकारके तुमको हम अपनी आत्माके इस विचारके साथ (ब्रह्मणा) अपना ज्ञान निवेदित करते हैं ।2 तुम ज्ञानयुक्त होकर, हमारे विचारोंके चारों ओर गति करते हुए हमारे लिये सब मानवीय सुखभोग रच दो--दीप्तिमान् ऐश्वर्य (द्युमन्तं वाजम्) और फलवर्षक शक्ति (वृषशुष्मम्) और उत्कष्ट आनंद (रयिम्) रच दो ।3 यहाँ प्रजा, यहाँ आनंद, यहाँ अन्तःप्रेरणाकी महती शक्ति (वीरवत् श्रव:) हमारे अंदर रच दो, अपने आनंदमें भरपूर होकर । हमें, हे ऋभुओ, वह अत्यधिक विविध ऐश्वर्य प्रदान कर दो, जिससे हम अपनी चेतनामें सामान्य मनुष्योंसे परेकी वस्तुओके प्रति जागृत हों जायँ ।''.4

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 1. स वाज्यर्वा स ऋषिर्वचस्यया स शूरो अस्ता पृतनासु दुष्टर: ।

     स रायस्पोषं स सुयीर्य दधे यं वाजो विभ्वाँ ऋभवो यमाविशु: ।।

 2. (श्रेष्ठं व: पेशो अधि धायि दर्शतं स्तोमो वाजा ऋभवस्तं जुजुष्टन ।)

    धीरासो हि ष्ठा कवयो विपश्चितस्तान् व एना ब्रह्मणा वेदयामसि ।।

  3. युयुमस्मभ्यं धिषणाभ्यस्परि  विद्वांसो विश्वा नर्याणि भोजना ।

    द्युमन्तं वाजं वृषशुष्ममुत्तममा नो रयिमृभचस्तक्षता वय : ।।

 4. इह प्रजामिह रयिं रराणा इह श्रवो वीरवत् तक्षता न: ।

    येन वयं चितयेमात्यन्यान् तं वाजं चित्रमृभयो ददा न: ।।

ग्०  4. 36.  6--9

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